Thursday, March 26, 2020

सतगुरु मोहि उतारो भवपार










| सतगुरु मोहि उतारो भवपार।।
तुम बिनु और सुने को मेरी, आरत नाद पुकार।।


गहरी नदिया नाव पुरानी, आय पड़ी मंझधार।
विषय बरियार प्रवल चहु दिशि से, मो पर करत प्रहार।।

तात मात सुत बंधु तिरिया, लोग कुटुम्ब परिवार।
अपने अपने स्वारथ कारण, राखत सब व्यवहार।।

नेम धर्म व्रत दान यज्ञ तप, संयम नियम अपार।
इनके फल से स्वर्ग भोगकर, फिर जन्में संसार।।

कृमि कीट पशु पक्षी जलचर, योनिन में कई बार।
भरमि भरमि भटके चौरासी, दुख सहे अगम अपार।।

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जब मैं भूला रे भाई, मेरे सतगुरु युक्ति लखाई।।
क्रिया कर्म आचार मैं छोड़ा, छोड़ा तीरथ नहाना।
सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही एक बौराना।।
ना मैं जानू सेवा बंदगी, ना मैं घंट बजाई।

ना मैं मूरत धरी सिंहासन, ना मैं पुडुप चढ़ाई।।

ना हरि रीझै जप तप कीन्हें, ना काया के जारे।
ना हरि रीझै धोती छाड़े, ना पांचों के मारे।।

दया राखि धर्म को पालै, जग सो रहे उदासी।
अपना सा जीव सबको जानै, ताहि मिलै अविनाशी ।।

सहै कुशब्द वाद को त्यागे, छाड़े गर्व गुमाना।
सत्यनाम ताहि को मिलिहैं, कहहिं कबीर सुजाना।

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