Saturday, September 28, 2019

आत्मा darshan

                                       आत्मा darshan








भूत एवं भविष्य तथा उनके समय एवं स्थान को खत्म कर सकने वाला, निरंतर प्रकृति-प्रवाह से जुङा, वर्तमान क्षण में सक्रिय/सचेत/जाग्रत योगी, इच्छामात्र से समस्त प्रारब्ध/शरीरी/स्रष्टिक गतिविधियों का कुशल नियंता होता है।
यहहैमेंहोनाका योग है।
अतः अचल आत्मा, सचल प्रकृति को यथावत जानो।

तासो ही कछु पाइये, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गये, कैसे बुझे पियास॥

आपा छिपा है आप में, आपही ढूंढे आप।
और कौन को देखिये, है सो आपही आप॥




भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे। देवों को प्रसन्न करने के लिए भजन करे। नाना शुभ-कर्म करे। तथापि जब तक ब्रह्म, आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं (सौ कल्प) के बीत जाने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती।

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता।
आत्मैक्यबोधेन बिनापि मुक्तिर्न सिद्धयाति ब्रह्मशतान्तरेअपि॥
(विवेक चूङामणि)

अपने किये हुये शुभ-अशुभ कर्म अवश्य ही भोगने पड़ते हैं। बिना भोग के कर्म नहीं मिटते। चाहे करोड़ों कल्प बीत जायें।

अश्वयमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि॥




शब्द व्युत्पत्ति से अर्थ प्रसार एवं शब्दार्थ से स्थिति, स्थित है। भाव से स्वर में सन्निहित मूल अक्षर क्रमशः संस्कृत, देवनागरी लिपि है। जिससे विराट फ़िर आर्य पुरूष स्थित है। तदुपरान्त अन्य कृति विकृति हैं।
, वर्ण शेष से भिन्न हैं।
क्षर से अक्षर का मूल निःअक्षर है।

केवल बुद्धि-विलास से, मुक्त हुआ कोय।
जब अपनी प्रज्ञा जगे, सहज मुक्त है सोय॥

वचन वेद अनुभव युगति, आनन्द की परछाहीं।
बोधरूप पुरूष अखंडित, कहबै मैं कुछ नाहीं॥


परमात्मा का का सहज मार्ग

परमात्मा का का सहज मार्ग


                                                           परमात्मा का का सहज मार्ग 






सुन्न के परे पुरुष को धामा ? तहँ साहब है आदि अनामा 
ताहि धाम सब जीव का दाता  मैं सबसों कहता निज बाता ?
रहत अगोचर सब के पारा  आदि अनादि पुरुष है न्यारा 
आदि ब्रह्म इक पुरुष अकेला  ताके संग नहीं कोई चेला 
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तेरा साहब है घर माँहीं ? बाहर नैना क्यों खोलै 
कहै कबीर सुनो भई साधो  साहब मिल गए तिल ओलै ?
है तिल के तिल के तिल भीतर ? बिरले साधु पाया है 
चतुदल कमल त्रिकुटी राजे  ॐकार दर्शाया है ?
ररंकार पद श्वेत सुन्न मध्य ? षट दल कवल बताया है 
पारब्रह्म महासुन्न मझारा  जहां नि:अक्षर रहाया है ?
भंवर गुफा में सौंह राजे ? मुरली अधिक बजाया हैं 
सतलोक सतपुरुष विराजे  अलख अगम दोउ भाया है 
पुरुष अनामी सब पर स्वामी  ब्रह्मण्ड पार जो गाया है 
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ये सब बातें काया माहीं ? प्रतिबिम्ब अण्ड का पाया है ?
ताकि नकल देख माया ने  काया माहि दिखाया है ?
ये सब काल जाल का फंदा  सकल जीव उरझाया है 
कहे कबीर सतलोक सार है  सतगुरु न्यारा कर दिखलाया है ?
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नोट - ध्यान की कृमवद्ध स्थिति जानने हेतु सुन्न 1 से सुन्न 7 तक प्रष्ठ पक्तियों को नीचे से ऊपर की ओर पढें 
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अष्ट प्रमान = भौंह से 8 अंगुल ऊपरअंड = मन
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अकह लोक - अनामी पुरुष - शुद्ध ब्रह्म ( ब्रह्मांड के पार) (अब वह उसमें समा गयी  जो बेअन्त है)
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सुन्न 7, अगम लोक - अगम पुरुष  - महाकाल  हंसो का अदभुत स्वरूप  
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सुन्न 6, अलख लोक - अलख पुरुष - निर्गुण काल  विस्तार असंख्य महापालिंग  अरब खरब सूर्यों का प्रकाश
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सुन्न 5, सत्यलोक - सतपुरुष - निरंजन + माया (पहली कला)
एक ‘पद्मपालिंग’ का विस्तार  3 लोक का ‘1 पालिंग’  वीणा’ की आवाज  अमृत का भोजन 
इन सब दृश्यों को देखती हुयी सुरति ‘सतलोक’ पहुँची  और ‘सतपुरुष’ का दर्शन पाया 
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इस मैदान के आगे पहुँची  तो उसे ‘सतलोक’ की सीमा दिखाई दी  वहाँ पर ‘तत्सत’ की आवाज भी सुनाई देती है  अनेक नहरें और सुन्दर दृश्य  करोङ योजन ऊँचाई वाले वृक्षों के बाग  उन वृक्षों पर करोङों सूर्य चन्द्रमा और अनेकानेक फ़ल फ़ूल 
सुन्न 4, निर्वाण पद - सतगुरु - सोऽहं पद
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आसमानी झूला की सैर के बाद सुरति और आगे की तरफ़ चली  तो दूर से चन्दन की
अति मनमोहक खुशबू अनन्त सुगन्ध उसे महसूस हुयी  इस स्थान पर ‘बाँसुरी’ की अनन्त धुन भी हो रही है 
(2 पर्वतों की संधि - भंवर गुफ़ा) (गुरु दरबार) (चेतन सहस अठासी दीपदयाल देश नामक निजधाम का पहला लोक  अगोचरी मुद्रा/शुकदेव
यहाँ चक्र (झूलाहै  सुरति झूलती है  दीपों से ‘सोऽहंग’ की आवाज उठ रही है 
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महासुन्न का मैदान - - सुरति और आगे चली तो ‘महासुन्न का मैदान’ आया  इस जगह पर 4 शब्द और 4 (5) अति गुप्त स्थान - बन्दीवान पुरुष !
(परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ  लगा  तब वह फ़िर और ऊपर को चङी  और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था  उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली 
फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी 
(यहाँ 10 योजन तक घना काला घोर अंधकार है  इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है विषम घाटी
अब ‘महासुन्न’ का नाका तोङकर वह आगे बङी 
सुरति चलते चलते 5 अरब 75 करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी 
------- सुन्न 3 के 2 भाग हैं  (यहाँ तक 5 ब्रह्म, 5 अंड)------------ 
सुन्न 3 का पहला भाग
ब्रह्म 5 - महासुन्न - (7वीं सुन्नमहाकाल की कला - (अचिंतपारब्रह्म (सहज) - निःअच्छर 
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(महासुन्न - में 7 लोक आते हैं  जहां कोई तत्व नहीं है  लेकिन शून्यमहाशून्य़ दोनों महाप्रलय के अधीन हैं)
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सुन्न 3 का दूसरा भाग
ब्रह्म 4 - (6वीं सुन्ननिर्गुण काल की कला (10वां द्वारसेत (श्वेतसुन्न (मानसरोवर)-अच्छर ब्रह्म-ररंकार-हंस  निर्मल चैतन्य देश (यादयाल देश का द्वार  खेचरी मुद्रा/ब्रह्माविष्णुमहेश 
त्रिकुटी स्थान से 12 गुणा अधिक प्रकाश  बहुत सी अप्सराओं द्वारा स्थान स्थान पर नृत्य  स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन  अनेको तरह के राग रंग नाना खेल  झरने  हीरे के चबूतरेपन्ने की क्यारियाँजवाहरात के वृक्ष  अनन्त शीशमहल  स्थूल तथा जङता नहीं है  सर्वत्र चेतन ही चेतन है 
लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह ‘सुन्न’ में पहुँची 
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त्रिकुटी महल (अलग सेब्रह्म सरोवर में स्नानमनवाणीशरीर से परे  सत शिष्य 
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ब्रह्म 3 -ॐकार (4 दल कमल) (त्रिकुटी देश मेंमनबुद्धिचित्तअहं (सुरतिकी गति यहाँ तक
लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा  अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं  हजारों सूर्य चन्द्रमा से अधिक प्रकाश  हमेशा  और बादल की गरज  भूचरी मुद्रा/व्यास
इस बंकनाल से पार होकर सुरति ‘दूसरे आकाश’ पहुँची  यहाँ ‘त्रिकुटी स्थान’ है 
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बंकनाल - इसके आगे ‘बंकनाल’ याने टेङा मार्ग है 
(जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है  फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है )
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(अनहद शब्द अजपा जाप से घट में प्रकट होता है  सबसे पहले यह शब्द ‘दिल’ में सुनाई देता है 
निरंतर अभ्यास करने से ‘दाहिनी आँख’ के ऊपर भवों के पास सुनाई देता है)
इसके ऊपर यानी यहाँ से ‘ब्रह्माण्ड देश’ की सीमा शुरु होती है  यहाँ से 2 आवाजें आसमानी निकलती हैं  अर्थात यहीं से ‘शब्द’ प्रकट होता है 
इस प्रकाश के ऊपर एक ‘बारीक और झीना दरबाजा’ है 
(अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे)
ब्रह्म 2 (सहस्रार-हजार दल कमलकरतार (निरंजन) 3 लोक का मालिक  यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है  स्वांसो की गिनती 21600  बृह्माण्ड देश का पहला लोक 
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तब आकाश दिखाई देगा  जिसमें ‘सहस्त्रदल’ कमल दिखाई देगा 
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जब आँख भीतर बिलकुल उलट जायेगी  तब सुरति शरीर में ऊपर की ओर चङेगी 
इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमकदीपमाला जैसी झिलमिलचाँद जैसा प्रकाशसूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी 
(इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है )
- 5 तत्वों के रंग लालपीलानीलाहरासफ़ेद दिखते हैं 
बिजली जैसी चमक और दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है 
तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं  फ़िर अलोप हो जाती हैं 
जब समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है 
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--------------- यहाँ से नीचे - पिंड (भौंहों से नीचे)--------------
सुन्न 2, निरंजन + माया - की दूसरी कला - पुरुष + प्रकृति (शुद्ध सगुण कालज्योति निरंजन
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आज्ञाचक्र - स्वांस 1000 
ब्रह्म 1 (मनआँखों के पीछे (2 दल कंज कमल - बगभौंराचाचरी मुद्रा/गोरखनाथ
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सुन्न 1 (कंठअविद्यामायाअष्टांगी > ने उत्पन्न किये > ब्रह्माविष्णुशंकर > सावित्रीलक्ष्मीगौरी  (विराट और सागर बनाया)
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(सुन्न - में 14 लोक (निम्नआते हैं  जहां तत्व हैं)
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7वां आकाशकंठ (विशुद्ध) (16 दल कमलशरिंग (श्रींध्वनि  स्वांस 1000 
 ब्रह्मा विष्णु को समाधिअष्टांगी ने पुत्र पुत्रियों का आपस में विवाह कर दिया 
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6वां आकाशह्रदय (अनाहत) (12 दल कमलसोऽहं ध्वनि   शंकरगौरी - गण - कैलाश पर्वत  स्वांस 6000  रंग - सफ़ेद 
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5वां आकाशनाभि (मणिपूर) (8 दल कमलहिरिंग (ह्रींध्वनि  विष्णुलक्ष्मी - भक्त - बैकुंठ  स्वांस 6000  रंग - नीला 
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4था आकाशस्वाधिष्ठान (इन्द्रियचक्र) (6 दल कमलॐकार ध्वनि  ब्रह्मासावित्री - संसार रचना  स्वांस गिनती 6000  रंग - सुनहला 
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3सरा आकाशधर्मराज - स्वर्गनर्क - अदल पसारा (कर्म और फ़ल का)
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2सरा आकाशमूलाधार (4 दल कमलकलिंग (क्लींध्वनि  गणेशइन्द्र - देवता , मुनि - रंभा का सदा नृत्य  रंग-लाल  स्वांस गिनती 1600
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1हला आकाशमृत्युलोक - जन्म मरण - माया के धोखे में फ़ंसा जीव !
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यहाँ तक - 14 तबक (खंड या लोकतल)
इसके नीचे - 7 तबक और (कुल 21 सुन्न)
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(पाताल)
पाताल - शेषनाग
रसातल - धौल
महातल - (वाराहसुअर
तलातल - (मीनमच्छ
सुतल - कच्छ
वितल - कूर्म (कछुआ
अतल - कूर्म
(यहाँ का - जलरंगपुरुष है)
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कर नैनों दीदार  पिंड से न्यारा है 
तू हिरदे सोच विचार  यह अंड मंझारा है
चोरी जारी निन्दा चारों  मिथ्या तज सतगुरु सिर धारो 
सतसंग कर सत नाम उचारो  तब सनमुख लहो दीदारा है 
जे जन ऐसी करी कमाई  तिनकी फैली जग रोसनाई 
अष्ट प्रमान जगह सुख पाई ? तिन देखा अंड मंझारा है ?
सोई अंड को अवगत राई  अमर कोट अकह नकल बनाई  
सुद्ध ब्रह्म पर तहं ठहराई  सो नाम अनामी धारा है      
सतवीं सुन्न अंड के माहीं  झिलमिलहट की नकल बनाई  7
महाकाल तहं आन रहाई  सो अगम पुरुष उच्चारा है 
छठवीं सुन्न जो अंड मंझारा  अगम महल की नकल सुधारा  6
निरगुन काल तहां पग धारा  सो अलख पुरुष कहु न्यारा है 
पंचम सुन्न जो अंड के माहीं  सत्तलोक की नकल बनाई  5
माया सहित निरंजन राई  सो सत्त पुरुष दीदारा है 
चौथी सुन्न अंड के माहीं  पद निर्बान की नकल बनाई  4
अविगत कला ह्वै सतगुरु आई  सो सोऽहं पद सारा है 
तीजी सुन्न की सुनो बड़ाई  एक सुन्न के दोय बनाई  3
ऊपर महासुन्न अधिकाई  नीचे सुन्न पसारा है 
सतवीं सुन्न महाकाल रहाई  तासु कला महासुन्न समाई 
पारब्रह्म कर थाप्यो ताही  सो निःअच्छर सारा है 
छठवीं सुन्न जो निरगुन राई  तासु कला  सुन्न समाई 
अच्छर ब्रह्म कहैं पुनि ताही  सोई सब्द ररंकारा है 
पंचम सुन्न निरंजन आई  तासु कला दूजी सुन छाई  2
पुरुष प्रकिरती पदवी पाई  सुद्ध सरगुन रचन पसारा है 
पुरुष प्रकति दूजी सुन माहीं  तासु कला पिरथम सुन आई 
जोत निरंजन नाम धराई  सरगुन स्थूल पसारा है 
पिरथम सुन्न जो जोत रहाई  ताकी कला अबिद्या बाई  1
पुत्रन संग पुत्री उपजाई  यह सिंध बैराट पसारा है 
सतवें अकास उतर पुनि आई  ब्रह्मा बिस्नु समाध जगाई  7
पुत्रन संग पुत्री परनाई  यहं स्रिंग नाम उचारा है 
छठे अकास सिव अवगति भौंरा  जंग गौर रिधि करती चौरा  6
गिरि कैलाश गन करते सोरा  तहं सोहं सिर मौरा है 
पंचम अकास में बिस्नु बिराजे  लछमी सहित सिंघासन गाजे  5
हिरिंग बैकुंठ भक्त समाजे  जिन भक्तन कारज सारा है 
चौथे अकास ब्रह्मा बिस्तारा  सावित्री संग करत बिहारा  4
ब्रह्म ऋद्धि ओंग पद सारा  यह जग सिरजनहारा है 
तीजे अकास रहे धर्म राई  नर्क सुर्ग जिन लीन्ह बनाई   3
करमन फल जीवन भुगताई  ऐसा अदल पसारा है 
दूजे अकास में इन्द्र रहाई  देव मुनी बासा तहं पाइ  2
रंभा करती निरत सदाई  कलिंग सब्द उच्चारा है 
प्रथम अकास मृत्तु है लोका  मरन जनम का नित जहं धोखा  1
सो हंसा पहुंचे सत लोका  जिन सत्तगुरु नाम उचारा है 
चौदह तबक किया निरवारा  अब नीचे का सुनो बिचारा  14
सात तबक में छः रखबारा  भिन भिन सुनो पसारा है  7
सेस धौल बाराह कहाई  मीन कच्छ और कुरम रहाई 
सो छः रहे सात के माहीं  यह पाताल पसारा है 
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संतो अचरज एक भौ भारी  कहौं तो को पतियाई 
एकै पुरुष एक है नारी ? ताकर करहु विचारा 
एकै अंड सकल चौरासी ? भरम भुला संसारा 
एकै नारी जाल पसारा ? जग में भया अंदेशा 
खोजत खोजत काहु अंत  पाया  ब्रह्मा विष्णु महेशा 
नाग फांस लिये घट भीतर ? मूसेनि सब जग झारी 
ग्यान खडग बिनु सब जग जूझे ? पकरि  काहू पाई 
आपै मूल फूल फुलवारी  आपुहि चुनि चुनि खाई ?
कहहिं कबीर तेई जन उबरे  जेहि गुरू लियो जगाई 


सत  साहिब जी