परमात्मा का का सहज मार्ग
परमात्मा का का सहज मार्ग
सुन्न के परे पुरुष को धामा ? तहँ साहब है आदि अनामा ।
ताहि धाम सब जीव का दाता । मैं सबसों कहता निज बाता ?
रहत अगोचर सब के पारा । आदि अनादि पुरुष है न्यारा ।
आदि ब्रह्म इक पुरुष अकेला । ताके संग नहीं कोई चेला ।
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तेरा साहब है घर माँहीं ? बाहर नैना क्यों खोलै ।
कहै कबीर सुनो भई साधो । साहब मिल गए तिल ओलै ?
है तिल के तिल के तिल भीतर ? बिरले साधु पाया है ।
चतुदल कमल त्रिकुटी राजे । ॐकार दर्शाया है ?
ररंकार पद श्वेत सुन्न मध्य ? षट दल कवल बताया है ।
पारब्रह्म महासुन्न मझारा । जहां नि:अक्षर रहाया है ?
भंवर गुफा में सौंह राजे ? मुरली अधिक बजाया हैं ।
सतलोक सतपुरुष विराजे । अलख अगम दोउ भाया है ।
पुरुष अनामी सब पर स्वामी । ब्रह्मण्ड पार जो गाया है ।
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ये सब बातें काया माहीं ? प्रतिबिम्ब अण्ड का पाया है ?
ताकि नकल देख माया ने । काया माहि दिखाया है ?
ये सब काल जाल का फंदा । सकल जीव उरझाया है ।
कहे कबीर सतलोक सार है । सतगुरु न्यारा कर दिखलाया है ?
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नोट - ध्यान की कृमवद्ध स्थिति जानने हेतु सुन्न 1 से सुन्न 7 तक प्रष्ठ पक्तियों को नीचे से ऊपर की ओर पढें ।
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अष्ट प्रमान = भौंह से 8 अंगुल ऊपर, अंड = मन
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- अकह लोक - अनामी पुरुष - शुद्ध ब्रह्म ( ब्रह्मांड के पार) (अब वह उसमें समा गयी । जो बेअन्त है)
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सुन्न 7, अगम लोक - अगम पुरुष - महाकाल । हंसो का अदभुत स्वरूप ।
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सुन्न 6, अलख लोक - अलख पुरुष - निर्गुण काल । विस्तार असंख्य महापालिंग । अरब खरब सूर्यों का प्रकाश
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सुन्न 5, सत्यलोक - सतपुरुष - निरंजन + माया (पहली कला)
एक ‘पद्मपालिंग’ का विस्तार । 3 लोक का ‘1 पालिंग’ । वीणा’ की आवाज । अमृत का भोजन ।
- इन सब दृश्यों को देखती हुयी सुरति ‘सतलोक’ पहुँची । और ‘सतपुरुष’ का दर्शन पाया ।
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इस मैदान के आगे पहुँची । तो उसे ‘सतलोक’ की सीमा दिखाई दी । वहाँ पर ‘तत्सत’ की आवाज भी सुनाई देती है । अनेक नहरें और सुन्दर दृश्य । करोङ योजन ऊँचाई वाले वृक्षों के बाग । उन वृक्षों पर करोङों सूर्य चन्द्रमा और अनेकानेक फ़ल फ़ूल ।
सुन्न 4, निर्वाण पद - सतगुरु - सोऽहं पद
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- आसमानी झूला की सैर के बाद सुरति और आगे की तरफ़ चली । तो दूर से चन्दन की
अति मनमोहक खुशबू अनन्त सुगन्ध उसे महसूस हुयी । इस स्थान पर ‘बाँसुरी’ की अनन्त धुन भी हो रही है ।
(2 पर्वतों की संधि - भंवर गुफ़ा) (गुरु दरबार) (चेतन सहस अठासी दीप) दयाल देश नामक निजधाम का पहला लोक । अगोचरी मुद्रा/शुकदेव
यहाँ चक्र (झूला) है । सुरति झूलती है । दीपों से ‘सोऽहंग’ की आवाज उठ रही है ।
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महासुन्न का मैदान - - सुरति और आगे चली तो ‘महासुन्न का मैदान’ आया । इस जगह पर 4 शब्द और 4 (5) अति गुप्त स्थान - बन्दीवान पुरुष !
(परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ न लगा । तब वह फ़िर और ऊपर को चङी । और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था । उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली ।
- फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी ।
(यहाँ 10 योजन तक घना काला घोर अंधकार है । इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है ।) विषम घाटी
- अब ‘महासुन्न’ का नाका तोङकर वह आगे बङी ।
- सुरति चलते चलते 5 अरब 75 करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी ।
------- सुन्न 3 के 2 भाग हैं । (यहाँ तक 5 ब्रह्म, 5 अंड)------------
सुन्न 3 का पहला भाग
ब्रह्म 5 - महासुन्न - (7वीं सुन्न) महाकाल की कला - (अचिंत) पारब्रह्म (सहज) - निःअच्छर ।
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(महासुन्न - में 7 लोक आते हैं । जहां कोई तत्व नहीं है । लेकिन शून्य, महाशून्य़ दोनों महाप्रलय के अधीन हैं)
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सुन्न 3 का दूसरा भाग
ब्रह्म 4 - (6वीं सुन्न) निर्गुण काल की कला (10वां द्वार) सेत (श्वेत) सुन्न (मानसरोवर)-अच्छर ब्रह्म-ररंकार-हंस । निर्मल चैतन्य देश (या) दयाल देश का द्वार । खेचरी मुद्रा/ब्रह्मा, विष्णु, महेश ।
त्रिकुटी स्थान से 12 गुणा अधिक प्रकाश । बहुत सी अप्सराओं द्वारा स्थान स्थान पर नृत्य । स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन । अनेको तरह के राग रंग नाना खेल । झरने । हीरे के चबूतरे, पन्ने की क्यारियाँ, जवाहरात के वृक्ष । अनन्त शीशमहल । स्थूल तथा जङता नहीं है । सर्वत्र चेतन ही चेतन है ।
लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह ‘सुन्न’ में पहुँची ।
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त्रिकुटी महल (अलग से) ब्रह्म सरोवर में स्नान/ मन, वाणी, शरीर से परे । सत शिष्य ।
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ब्रह्म 3 -ॐकार (4 दल कमल) (त्रिकुटी देश में) मन, बुद्धि, चित्त, अहं (सुरति) की गति यहाँ तक
लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा । अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं । हजारों सूर्य चन्द्रमा से अधिक प्रकाश । हमेशा ॐ और बादल की गरज । भूचरी मुद्रा/व्यास
- इस बंकनाल से पार होकर सुरति ‘दूसरे आकाश’ पहुँची । यहाँ ‘त्रिकुटी स्थान’ है ।
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बंकनाल - इसके आगे ‘बंकनाल’ याने टेङा मार्ग है ।
(जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है । फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है ।)
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(अनहद शब्द अजपा जाप से घट में प्रकट होता है । सबसे पहले यह शब्द ‘दिल’ में सुनाई देता है ।
निरंतर अभ्यास करने से ‘दाहिनी आँख’ के ऊपर भवों के पास सुनाई देता है)
इसके ऊपर यानी यहाँ से ‘ब्रह्माण्ड देश’ की सीमा शुरु होती है । यहाँ से 2 आवाजें आसमानी निकलती हैं । अर्थात यहीं से ‘शब्द’ प्रकट होता है ।
- इस प्रकाश के ऊपर एक ‘बारीक और झीना दरबाजा’ है ।
(अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे)
ब्रह्म 2 (सहस्रार-हजार दल कमल) करतार (निरंजन) 3 लोक का मालिक । यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है । स्वांसो की गिनती 21600 । बृह्माण्ड देश का पहला लोक ।
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- तब आकाश दिखाई देगा । जिसमें ‘सहस्त्रदल’ कमल दिखाई देगा ।
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- जब आँख भीतर बिलकुल उलट जायेगी । तब सुरति शरीर में ऊपर की ओर चङेगी ।
- इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमक, दीपमाला जैसी झिलमिल, चाँद जैसा प्रकाश, सूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी ।
(इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है ।)
- 5 तत्वों के रंग लाल, पीला, नीला, हरा, सफ़ेद दिखते हैं ।
- बिजली जैसी चमक और दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है ।
- तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं । फ़िर अलोप हो जाती हैं ।
- जब समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है ।
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--------------- यहाँ से नीचे - पिंड (भौंहों से नीचे)--------------
सुन्न 2, निरंजन + माया - की दूसरी कला - पुरुष + प्रकृति (शुद्ध सगुण काल) ज्योति निरंजन
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आज्ञाचक्र - स्वांस 1000 ।
- ब्रह्म 1
(मन) आँखों के पीछे (2 दल कंज कमल - बग, भौंरा) चाचरी मुद्रा/गोरखनाथ
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सुन्न 1 (कंठ) अविद्या, माया, अष्टांगी > ने उत्पन्न किये > ब्रह्मा, विष्णु, शंकर > सावित्री, लक्ष्मी, गौरी । (विराट और सागर बनाया)
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(सुन्न - में 14 लोक (निम्न) आते हैं । जहां तत्व हैं)
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7वां आकाश, कंठ (विशुद्ध) (16 दल कमल) शरिंग (श्रीं) ध्वनि । स्वांस 1000 ।
ब्रह्मा विष्णु को समाधि, अष्टांगी ने पुत्र पुत्रियों का आपस में विवाह कर दिया ।
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6वां आकाश, ह्रदय (अनाहत) (12 दल कमल) सोऽहं ध्वनि । शंकर, गौरी - गण - कैलाश पर्वत । स्वांस 6000 । रंग - सफ़ेद ।
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5वां आकाश, नाभि (मणिपूर) (8 दल कमल) हिरिंग (ह्रीं) ध्वनि । विष्णु, लक्ष्मी - भक्त - बैकुंठ । स्वांस 6000 । रंग - नीला ।
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4था आकाश, स्वाधिष्ठान (इन्द्रियचक्र) (6 दल कमल) ॐकार ध्वनि । ब्रह्मा, सावित्री - संसार रचना । स्वांस गिनती 6000 । रंग - सुनहला ।
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3सरा आकाश, धर्मराज - स्वर्ग, नर्क - अदल पसारा (कर्म और फ़ल का)
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2सरा आकाश, मूलाधार (4 दल कमल) कलिंग (क्लीं) ध्वनि । गणेश, इन्द्र - देवता , मुनि - रंभा का सदा नृत्य । रंग-लाल । स्वांस गिनती 1600
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1हला आकाश, मृत्युलोक - जन्म मरण - माया के धोखे में फ़ंसा जीव !
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यहाँ तक - 14 तबक (खंड या लोक, तल)
इसके नीचे - 7 तबक और (कुल 21 सुन्न)
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(पाताल)
1 पाताल - शेषनाग
2 रसातल - धौल
3 महातल -
(वाराह) सुअर
4 तलातल -
(मीन) मच्छ
5 सुतल - कच्छ
6 वितल - कूर्म (कछुआ)
7 अतल - कूर्म
(यहाँ का - जलरंग, पुरुष है)
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कर नैनों दीदार । पिंड से न्यारा है ।
तू हिरदे सोच विचार । यह अंड मंझारा है
चोरी जारी निन्दा चारों । मिथ्या तज सतगुरु सिर धारो ।
सतसंग कर सत नाम उचारो । तब सनमुख लहो दीदारा है ।
जे जन ऐसी करी कमाई । तिनकी फैली जग रोसनाई ।
अष्ट प्रमान जगह सुख पाई ? तिन देखा अंड मंझारा है ?
सोई अंड को अवगत राई । अमर कोट अकह नकल बनाई ।
सुद्ध ब्रह्म पर तहं ठहराई । सो नाम अनामी धारा है ।
सतवीं सुन्न अंड के माहीं । झिलमिलहट की नकल बनाई । 7
महाकाल तहं आन रहाई । सो अगम पुरुष उच्चारा है ।
छठवीं सुन्न जो अंड मंझारा । अगम महल की नकल सुधारा । 6
निरगुन काल तहां पग धारा । सो अलख पुरुष कहु न्यारा है ।
पंचम सुन्न जो अंड के माहीं । सत्तलोक की नकल बनाई । 5
माया सहित निरंजन राई । सो सत्त पुरुष दीदारा है ।
चौथी सुन्न अंड के माहीं । पद निर्बान की नकल बनाई । 4
अविगत कला ह्वै सतगुरु आई । सो सोऽहं पद सारा है ।
तीजी सुन्न की सुनो बड़ाई । एक सुन्न के दोय बनाई । 3
ऊपर महासुन्न अधिकाई । नीचे सुन्न पसारा है ।
सतवीं सुन्न महाकाल रहाई । तासु कला महासुन्न समाई ।
पारब्रह्म कर थाप्यो ताही । सो निःअच्छर सारा है ।
छठवीं सुन्न जो निरगुन राई । तासु कला आ सुन्न समाई ।
अच्छर ब्रह्म कहैं पुनि ताही । सोई सब्द ररंकारा है ।
पंचम सुन्न निरंजन आई । तासु कला दूजी सुन छाई । 2
पुरुष प्रकिरती पदवी पाई । सुद्ध सरगुन रचन पसारा है ।
पुरुष प्रकति दूजी सुन माहीं । तासु कला पिरथम सुन आई ।
जोत निरंजन नाम धराई । सरगुन स्थूल पसारा है ।
पिरथम सुन्न जो जोत रहाई । ताकी कला अबिद्या बाई । 1
पुत्रन संग पुत्री उपजाई । यह सिंध बैराट पसारा है ।
सतवें अकास उतर पुनि आई । ब्रह्मा बिस्नु समाध जगाई । 7
पुत्रन संग पुत्री परनाई । यहं स्रिंग नाम उचारा है ।
छठे अकास सिव अवगति भौंरा । जंग गौर रिधि करती चौरा । 6
गिरि कैलाश गन करते सोरा । तहं सोहं सिर मौरा है ।
पंचम अकास में बिस्नु बिराजे । लछमी सहित सिंघासन गाजे । 5
हिरिंग बैकुंठ भक्त समाजे । जिन भक्तन कारज सारा है ।
चौथे अकास ब्रह्मा बिस्तारा । सावित्री संग करत बिहारा । 4
ब्रह्म ऋद्धि ओंग पद सारा । यह जग सिरजनहारा है ।
तीजे अकास रहे धर्म राई । नर्क सुर्ग जिन लीन्ह बनाई । 3
करमन फल जीवन भुगताई । ऐसा अदल पसारा है ।
दूजे अकास में इन्द्र रहाई । देव मुनी बासा तहं पाइ । 2
रंभा करती निरत सदाई । कलिंग सब्द उच्चारा है ।
प्रथम अकास मृत्तु है लोका । मरन जनम का नित जहं धोखा । 1
सो हंसा पहुंचे सत लोका । जिन सत्तगुरु नाम उचारा है ।
चौदह तबक किया निरवारा । अब नीचे का सुनो बिचारा । 14
सात तबक में छः रखबारा । भिन भिन सुनो पसारा है । 7
सेस धौल बाराह कहाई । मीन कच्छ और कुरम रहाई ।
सो छः रहे सात के माहीं । यह पाताल पसारा है ।
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संतो अचरज एक भौ भारी । कहौं तो को पतियाई ।
एकै पुरुष एक है नारी ? ताकर करहु विचारा ।
एकै अंड सकल चौरासी ? भरम भुला संसारा ।
एकै नारी जाल पसारा ? जग में भया अंदेशा ।
खोजत खोजत काहु अंत न पाया । ब्रह्मा विष्णु महेशा ।
नाग फांस लिये घट भीतर ? मूसेनि सब जग झारी ।
ग्यान खडग बिनु सब जग जूझे ? पकरि न काहू पाई ।
आपै मूल फूल फुलवारी । आपुहि चुनि चुनि खाई ?
कहहिं कबीर तेई जन उबरे । जेहि गुरू लियो जगाई ।
सत साहिब जी
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