Tuesday, May 7, 2019

बीजक कबीर साहिब

बीजक कबीर साहिब 
सत साहेब जी
SAT KABIR
छिलकत थोथे प्रेम सों, मारे पिचकारी गात। के लीन्हों बसि आपने, फिर फिर चितवत जात।
ज्ञान डांग ले रोपिया, त्रिगुण दियो है साथ। शिवसन ब्रह्मा लेन कहो है, और की केतिक बात।
एक ओर सुन नर मुनि ठाड़े, एक अकेली आप। दृष्टि परे उन काहु न छाड़े, कै लीन्हों एकै धाप।
जेते थे तेते लिए, घूघट माहिं समोय। कज्जल वाकी रेख है, अदग गया नहिं कोय।
इन्द्र कृष्ण द्वारे खड़े, लोचन ललचि लजाय। कहहिं कबीर ते ऊबरे, जाहि न मोह समाय।
चांचर-2 । जारो जग का नेहरा, मन बौरा जामें सोग सन्ताप, समुझि मन बौरा हो।
तन धन से क्या गर्भ सी, मन बौरा भस्म कीन्ह जाके साज, समुझि मन बौरा बिना नेव का देव घरा
मन बौरा बिन कहगिल की ईंट, समुझि मन बौरा कालबूत की हस्तिनी, मन बौरा चित्र रचो जगदीश
समुझि मन बौरा ।
काम अन्ध गज बशि परे, मन बौरा अंकुश सहियो सीस, समुझि मन बौरा मर्कट मूठी स्वाद की,
मन बौरा लीन्हों भुजा पसारि, समुझि मन बौरा ।
छूटन की संशय परी, मन बौरा घर घर नाचेउ द्वार, समुझि मन बौरा ऊंच नीच समझेउ नहीं, मन बौरा घर घर खायो डांग, समुझि मन बौरा । ज्यो सुवना ललनी गुह्यो, मन बौरा।
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सबद-86 कबिरा तेरो घर कंदला में, यह जग रहत भुलाना। गुरु की कही करत नहिं कोई, अमहल महल दिवाना।
सकल ब्रह्म मंह हंस कबीरा, कागान चोंच पसारा। मनमथ कर्म धरै सब देही, नाद बिंदु बिस्तारा॥
सकल कबीरां बोलै बानी, पानी में घर छाया। होत अनंत लूट घट भीतर, घट का मर्म न पाया।
कामिनि रूपी सकल कबीरा, मृगा चरिन्दा होई। बड़ बड़ ज्ञानी मुनिवर थाके, पकरि सकै नहिं कोई॥
ब्रह्मा बरुन कुबेर पुरन्दर, पीपा औ प्रहलादा। हिरनाकुस नख उदर बिदारा, तिनहुं को काल न राखा॥
गोरख ऐसे दत्त दिगम्बर, नामदेव जयदेव दासा। तिनकी खबर कहत नहिं कोई, उन्हें कहां कियो है बासा॥
चौपर खेल होत घट भीतर, जनम का पासा डारा। दम दम की कोई खबर न जानै, कोई करि न सकै निरुआरा॥
चारि दृग महि मंडल रचो है, रूम साम बिच डिल्ली। तेहि ऊपर कछ अजब तमासा, मारो है जम किल्ली॥
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आधी साखी सिर खड़ी, जो निरुवारी जाय। क्या पंण्डित की पोथिया, जो राति दिवस मिलि गाय॥
पांच तत्त्व का पूतरा, युक्ति रची मैं कीव।। मैं तोहि पूछौं पण्डिता, शब्द बड़ा की जीव॥

पांच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नांव।। एक कला के बीछुरे, बिकल होत सब ठांव॥

रंगहि ते रंग ऊपजे, सब रंग देखा एक। कौन रंग है जीव का, ताका करहु विवेक॥
जाग्रत रूपी जीव है, शब्द सोहागा सेत। जर्द बुन्द जल कूकुही, कहहिं कबीर कोइ देख॥25॥ पांच तत्त्व ले या तन कीन्हा, सो तन ले काहि ले दीन्हा। कर्महिं के वश जीव कहत हैं, कर्महिं को जिव दीन्हा॥

पांच तत्त्व के भीतरे, गुप्त बस्तु अस्थान। बिरला मर्म कोई पाइहैं, गुरु के शब्द प्रमान॥27॥

असुन्न तखत अड़ि आसना, पिण्ड झरोखे नुर। जाके दिल में हौं बसा, सैना लिये हजूर॥28॥ हृदया भीतर आरसी, मुख देखा नहिं जाय। मुख तो तबहीं देखिहो, जब दिल की दुबिधा जाय॥

गांव ऊंचे पहाड़ पर, औ मोटा की बांह। कबीर अस ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छांह॥

जेहि मारग गये पंडिता, तेई गई बहीर। ऊंची घाटी राम की, तेहि चढ़ि रहै कबीर॥
ये कबीर तें उतरि रहु, तेरो सम्मल परोहन साथ। सम्मल घटे न पगु थके, जीव बिराने हाथ॥

कबीर का घर शिखर पर, जहां सिलहली गैल। पांव न टिके पपीलका, तहां खलकन लादै बैल॥












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