सत साहिब जी
दो पल की ज़िंदगी
दो पल की ज़िंदगी
मति दे दी बालम बहरे यूं टेक। संसारी दी गल नूं चीन्हें, नहीं बूझै शब्द जु गहरे नूं || मुरद्यौं सेती प्रीत लगावें, नहीं जानें सतगुरू महरे नूं || ऊंची थलियां खेती बोवें, भूल गए निज डहरे नूं ||
यौह संसार समझदा नाहीं, कहंदा स्याम दुपहरे नू ||
सेत छत्र सिर मुकुट बिराजे, देखत ना उस चेहरे नू ||
गरीबदास यौह वक्त जात है, रोवोगे इस पहरे नू ॥
अथ शब्दी सुरति सरोवर है मन हंस है । निरति निर्बान है । निज मननेश है ॥१॥ राम कैसा है । राम जैसे कें तैसा है । राम रंगीला है । राम रक्त न पीला है। | ॥२॥ बारह बानी मैं अलहदा है। | दृष्टि परै सो बहदा है ॥३॥ निरगुण सरगुण दो धारा हैं ।आदि राम तो न्यारा है ॥४॥ दुरबीन सफा है । | मंजन ऐनक नफा है । कैसे मंजन ऐनक नफा है ॥५॥
क्रोध की कुरड़ी परि न चढे । मोह का कागज न पढे ॥६॥ काम की कटारी न बांधै । लोभ की लार न सांधे ॥७॥ मनीकी मुटकी कू फोरै । कुबुद्धि का खजाना न जोरै ॥८॥
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