कबीर
वाणी
| गुरु मिला तब जानिये, मिटे मोह तन ताप ।। | हरष शोक व्याप नहीं, तब गुरु आपै आप ।।।
सांई इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय। । मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ।। एक ही साधै सब सधै, सब साधै सब जाय।। । माली सीचे मूल को, फूलै फलै अघाय !! । जो जाको गुन जानता, सो ताको गुन लेत।।
कोयल आमहि खात है, काग निंबोरी लेत।
कीया कछ न होते है, अनकीया ही होय।। 1 कीया जो कछू होत तो, करता औरे कोय ॥
आसा तो गुरुदेव की, दूजी आस निरास। पानी में घर मीन का, सो क्यों मरै पियास ॥ गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि। - बिना विचारै गुरु करै, पड़े चौरासि खानि ॥
जैसी करनी जासु की, तैसी भुगतै सोय।। बिन सतगुरु की भक्ति के, जनम जनम दुख होय ।।
अवधू हम तो प्रपटन के बासी । तीरथ जाहिं न देवल
पूजौं, ना वृन्दावन काशी ॥ | ऐसा दर्पण मंझि हमारै, हम दर्पण के माहीं । ऐनक
दरिया चिसमें जोये, नूर निरंतर झाहीं ॥| रहनी रहै सो रोगी होई, करनी करै सो कामी । रहनी
करनी से हम न्यारे, ना सेवक ना स्वामी ॥ | इन्द्री कसता सोई कसाई, जग मैं बहै सो बौरा । ऐसा
खेल विहंगम हमरा, जीतौ जम किंकर जौरा ॥ ठाकुर तो हम ठोक जराये, हरि की हाट उठाई । राम
रहीम मजूरी करि हैं, उस दरगह मैं भाई ॥ शेष महेश गणेशर पूजे, पत्थर पानी ध्यावें । रामचंद्र
दशरथ के पूता, से कर्ता ठहरावै ॥
मात पिता सुत इस्तरी,
आलस बन्धू कानि साधु दरश को जब चलै, ये अटकावे आनि।।
साधु शब्द समुद्र है, जामें रतन भराय।
मन्द भाग मुट्ठी भरै, कंकर हाथ लगाय।।।
संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय।
लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।।।
कई बार नहिं कर सके, दोय बख्त करि लेय।
कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहि देय॥
साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार।
जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार।॥
साधु मिले यह सब टलै, काल-जाल जम चोट।
शीश नवावत ढहि परै, अघ पापन के पोट॥
साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहि॥
दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव।
ये ते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सद्भाव ॥
छठे मास नहिं करि सकै, बरस दिना करि लेय।
कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय।
कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर।
जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर॥
दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करु इक बार।
कबीर साध दरश ते, उतने शौच
सत कबीर ||
No comments:
Post a Comment
thnx for comment