Wednesday, May 29, 2019

सतगुरु वाणी

सतगुरु वाणी

जब मैं भूला रे भाई, मेरे सतगुरु युक्ति लखाई।। क्रिया कर्म आचार मैं छोड़ा, छोड़ा तीरथ नहाना। सगरी दुनिया भई सयानी, मैं ही एक बौराना।। ना मैं जानू सेवा बंदगी, ना मैं घंट बजाई। ना मैं मूरत धरी सिंहासन, ना मैं पुडुप चढ़ाई।। ना हरि रीझै जप तप कीन्हें, ना काया के जारे। ना हरि रीझै धोती छाड़े, ना पांचों के मारे।। दया राखि धर्म को पालै, जग सो रहे उदासी। अपना सा जीव सबको जानै, ताहि मिलै अविनाशी ।। सहै कुशब्द वाद को त्यागे, छाड़े गर्व गुमाना। सत्यनाम ताहि को मिलिहैं, कहहिं कबीर सुजाना।


माया महाठगिन हम जानी।। तिरगुन फांस लिये कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।। केशव के कमला होय बैठी, शिव के भवन भवानी। पंडा के मूरति होय बैठी, तीरथ हूं में पानी।। योगी के योगिन होय बैठी, राजा के घर रानी। काहू के हीरा होय बैठी, काहू के कौड़ी कानी।। भक्ता के भक्तिन होय बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी। कहहिं कबीर सुनो हो संतो, ईसब अकथ कहानी।।

| सतगुरु मोहि उतारो भवपार।।
तुम बिनु और सुने को मेरी, आरत नाद पुकार।। गहरी नदिया नाव पुरानी, आय पड़ी मंझधार। विषय बरियार प्रवल चहु दिशि से, मो पर करत प्रहार।। तात मात सुत बंधु तिरिया, लोग कुटुम्ब परिवार। अपने अपने स्वारथ कारण, राखत सब व्यवहार।। नेम धर्म व्रत दान यज्ञ तप, संयम नियम अपार। इनके फल से स्वर्ग भोगकर, फिर जन्में संसार।। कृमि कीट पशु पक्षी जलचर, योनिन में कई बार। भरमि भरमि भटके चौरासी, दुख सहे अगम अपार।।


अबिनासी दुलहा कब मिलिहौं, सभ संतन के प्रतिपाल। जल उपजी जल ही सो नेहा, रटत पियास पियास। मैं बिरहिनि ठाढ़ी मग जोडे, राम तुम्हारी आस। छाड्यौ गेह नेह लगि तुमसे, भई चरन लौलींन। तालाबेलि होत घट भीतर, जैसे जल बिनु मींन। दिवस न भूख रैंनि नहिं निद्रा, घर अंगना न सुहाइ। सेजरिया बैरिनि भई मोको, जागत रैनि बिहाइ। मैं तो तुम्हारी दासी हौ सजनां, तुम हमरै भरतार। दीन दयाल दया करि आवौ, समरथ सिरजनहार। कै हम प्रान तजत हैं प्यारे, कै अपनी करि लेहु। दास कबीर बिरह अति बाढ्यौ, अब तो दरसन देहु।


Monday, May 20, 2019

वाणी

वाणी




याह पल नहा बााधय, सतगुरु कह विचारा। गरीब, लाख कोस पर जा परे, छुबकी एक सहाब। जाके संपट मिल गये, आया नहीं जुवाब।। गरीब, पायड़ा एक जु पाव का, दीसे सदा हमेश। सहंस वर्ष जहां हो गये, मेटै कौन अंदेश ।। गरीब, घोड़ा जोड़ा सेत है, सेते ताहि पलांन। सतगुरु कू काढ़े जहां, दीन्हा अर्श विमान।। गरीब, कौतूर पहारी पर चढूया, मूसा मांग दीदार। आधा पर्वत जरि गया, आधा कपे यार ।। गरीब, मूसा भाग्या तेज से, ऊपर हूँ करि हाथ।। पर्याा झमक्का तेज का, मूठी बांधे जात ।। गरीब, कौतूर पहारी जरि गई, शुरमा भया पाषाण।।

आधा पर्वत डिगमगै, याह लीला कुरबान।। गरीब, मूसा भाग्या जहां से, जग में रामत कीन। एक बंदा बैठा शिला पर, ध्यान धरे दुरबीन।। गरीब, मूसे से मूसा कहै, एक गुरज गगन के मांहि।। मारि शिला से बैंच करि, यौह उपदेश कहांहि ।। गरीब, मूसे गुरज पकरि लई, संपट शिला के मार। कोटि बहत्तर नीकले, मूसा तहां पुकार।।। गरीब, मूसे से मूसा कहै, सुन मूसे मेरे यार। कौतूर पहारी से भगे, कोटि बहत्तर लार।। : गरीब, एक बंदा करता बंदगी, लिये छुहारा गोप।

छह मंत्र की दई मात्रा, पंड पुत्र प्रवीना ।। ५२ गरीब, पंडु अंध और विदुर सारिखे, व्यास वचन से आये। ब्रह्म तत्त से तारी लागी, मांग न टुकड़े खाये ।। ५३ गरीब, नामदेव की छांनि छिवाई, देवल फेर दिखाया। मूई गऊ तत्काल जिवाई, कदि मांग्या और खाया।। ५४ गरीब, कबीर पुरुष के बालद आई, नौलख बोडी लाहा। केशव से बनजारे जाकै, दे है यज्ञ जुलाहा।। ५५ खान पान बस्ती से आया, हँट हाथ नहीं अंदर धस्या। समझ बूझ नहीं परी धमोरू, किस कारण बन खंड बस्या।। ५६। व्यास पुत्र शुकदेव कें पूछो, जनक विदेही गुरु कीन्हा। तरतीबर बैराग छाडि कर, गृही चरण सिर दीन्हा ।। ५७ ब्रह्मा विष्णु महेश शेष से, यह तो बस्ती मांहि रहैं। नारद पुंडरीक और व्यासा, कागभुसंडा कथा कहैं ।। ५८ बाहर भीतर भीतर बाहर, सुंन बस्ती में बसता है। अकल अभूमी नजर न आया, कहां मुतंगा कसता है।। ५६ । सेली शींगी जहरा मुहरा, गुदरी कै चींधी लाई । दौहबर कोट ढाहि नहीं दीन्हा, अटी नहीं त्रिगुण खाई ।। ६० सुरति स्वरूपी नाद बजत हैं, निरति निरंतर नाचत हैं। मात पिता जननी नहीं जाया, कहो भेष कदि काछत हैं।। ६१। गोरख जनक विदेही यौही है, ध्रुव प्रहलाद कबीर कला। चिदानंद चेतन अविनाशी, काहे पूजै सुंन शिला।। ६२ सौ करोड़ मंडलीक तास के, शूरे सावंत दल मांहीं । रावण राम नाम एकै है, समझ देख ले मन मांहीं ।। ६३ जो समझे सो राम जपत हैं, अन समझै रावण रोवै।। गरीबदास याह चूक धरौं धुर, भूना बीज बहुरि बोवै ।। ६४
| अथ जम का अंग गरीब, जम किंकर के धाम कें, सांईं ना ले जाय। बड़ी भयंकर मार है, सतगुरु करें सहाय ।। १।। गरीब, कारे कारे कंगरे, लीला जम का धाम ।। जेते जामें जीव है, नहीं चैन विश्राम ।। २।। गरीब, है तांबे की धरतरी, चौरासी मध्य कुण्ड।

बंदीछोड़ गरीब साहिब जी

बंदीछोड़ गरीब साहिब जी 


रीब चार पदारथ एक करि सुरति निरति मन पौन। | असिल फकीरी जोग यह.गगन मंडल को गौन।। | कबीर साधू ऐसा चाहिए.दुखै दुखावै नांहिं।। | पान फूल छेडै नहीं बसै बगीचा मांहिं।। | साधू जन सब मे रमैं दुख ना काहू देहि | अपने मत मे दृढ़ रहै, साधुन का मत ऐहि।।

साधू भौंरा जग कल निशिदिन फिरै उदाश। | टुक टुक तहां बिलंबिया जंह शीतल शब्द निवाश।। | निर बैरी निह कामता स्वामी सेती नेह

बिषया से न्यारा रहै, साधुन का मत ऐह ।। | मान अपमान चित धरै औरन को सनमान। | जो कोई आशा करै उपदेशहिं तेंहिं ज्ञान ।। | प्रेम भाव येक चाहिए,भेष अनेक बनाय।


चाहे घर मे बास करे चाहे बन मे जाय।। प्रेम पियाला जो पिये शीश दक्षिणा देय। लोभी शीश दे सके नाम प्रेम का लेय।।

बंदीछोड़ गरीब साहिब जी 

प्रेम का अंग

सत  साहिब जी 
SAT KABIR



सत साहेब जी नाम रसायन प्रेम रस, पीवत अधिक रसाल।। कबीर पीवन दुर्लभ है,
मांगै शीश शीश कलाल॥
प्रेम पांवरी पहिरि के,धीरज कन्जल देय। शील सिंदूर भराय के, तब पिय का सुख ले।
प्रेम छिपाया ना छिपै, जा घट परगट होय जो पै मुख बोलै नहीं, नैन देत हैं रोय  ,
प्रेम बिना धीरज नहीं, बिरह बिना वैराग सतगुरु बिन जावै नहीं, मन मनसा का दाग॥
प्रेम भक्ति में रचि रहैं, मोक्ष मुक्ति फल पाय। शब्द मांहि जब मिलि रहै, नहिं आवै नहिं जाय
अमृत पावै ते जना, सतगुरु लागा कान। वस्तु अगोचर मिलि गई, मन नहिं आवा आन
यह तो घर है प्रेम का, ऊंचा अधिक इकंत।। शीष काटि पग तर धरै, तब पैठे कोई संत
यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात। अपने जिय से जानिये, मेरे जिय की बात
कबीर हम गुरु रस पिया, बाकी रही न छाक। पाका कलश कुम्हार का, बहुरि च चढ़सी चाक
आया प्रेम कहां गया, देखा था सब कोय। छिन रोवै छिन में हंसै, सो तो प्रेम न होय

आठ पहर चौसठ घड़ी, लागि रहे अनुराग। हिरदै पलक न बीसरे, तब सांचा बैराग
जाके चित्त अनुराग है, ज्ञान मिले नर सोया बिन अनुराग न पावई, कोटि करै जो कोय
प्रीति ताहि सो कीजिये, जो आप समाना होय कबहुक जो अवगुन पड़े, गुन ही लहै समय।



Saturday, May 11, 2019

महान सूफी कवि बाबा बुल्ले शाह

सूफी  कवि बाबा बुल्ले शाह 








बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'




बुलेशाह कहते हैं...चढ़दे सूरज ढलदे देखेबुझदे दीवे बलदे देखे. हीरे दा कोइ मुल ना जाणे
खोटे सिक्के चलदे देखे, जिना दान जग ते कोई, वी पुतर पलदे देखे।
उसदी रहमत दे नाल बंदे पाणी उत्ते चलदे देखे।
लोको कैंदे दाल नइ गलदी, मैं ते पथर गलदे देखें।
जिन्हा ने कदर ना कीती रब दी, हथ खाली मलदे देखें.... 
कई पैरा तो नंगे फिर, सिर ते लभ छावा, मैनु दाता सब कुछ दित्ता, क्यों ना शुकर मनावा..


अगम की वाणी

                           अगम की वाणी 
सत साहिब 




मात पिता सुत इस्तरी, आलस बन्धू कानि साधु दरश को जब चलै, ये अटकावे आनि।। 

साधु शब्द समुद्र है, जामें रतन भराय। मन्द भाग मुट्ठी भरै, कंकर हाथ लगाय।।

संगत कीजै साधु की, कभी निष्फल होय। लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय।।2

कई बार नहिं कर सके, दोय बख्त करि लेय। कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहि देय1

साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार। जग में होते साधु नहिं, जर मरता संसार।

साधु मिले यह सब टलै, काल-जाल जम चोट। शीश नवावत ढहि परै, अघ पापन के पोट1

साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं। धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहि॥1

दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव। ये ते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सद्भाव

 छठे मास नहिं करि सकै, बरस दिना करि लेय।। कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय।।

 कंचन दीया करन ने, द्रौपदी दीया चीर। जो दीया सो पाइया, ऐसे कहैं कबीर॥

 दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करु इक बार। कबीर साध दरश ते, उतने शौच i



आपा राखि परमोधिये, सुनै ज्ञान अकराथि। कटै कन बाहिरी, कछू आवै हाथि॥

 जौरे साखी कहै, साधन पड़ि गयी रोस। ढा जल पीवै नहीं, काढ़ि पीवन की होस॥

 कथनी थोथी जगत में, करनी उत्तम सार।। कहैं कबीर करनी भली, उतरै भोजल पा॥

 कथनी मीठी खांड सी, करनी विष की लोय। कथनी तजी करनी करै, विष से अमृत होय॥


पढ़ि पढ़ि के समुझावई, मन नहिं धारै धीर। | रोटी का संसै पड़ा, यौं कह दास कबीर॥

 कथनी कांची होय गयी, करनी करी सार। स्रोता वक्ता मरि गया, मूरख अनंत अपार॥

कथनी बदनी छाड़ि दे, करनी सों चित लाय। | नर सो जल प्याये बिना, कबहु प्यास जाय।।

कथनी कथै तो क्या हुआ, करनी ना ठहराय। कालबूत का कोट ज्यौं, देखत ही ढहि जाय॥

साखी लाय बनाय के, इत उत अच्छर काटि। कहैं कबीर कब लगि जिये, जूठी पत्तर चाटि॥

 कथनी के सूरे घने, थोथै बांधै तीर। बिरह बान जिनके लगा, तिनके बिकल सरीर॥

 कथनी कथि फूला फिरै, मेरे होयै उचार। भाव भक्ति समझ नहीं, अंधा मूढ़ गंवार॥

 पानी मिलै आप को, औरन बकसत छीर। आपन मन निहचल नहीं, और बंधावत धीर॥

 करनी गर्व निवारनी, मुक्ति स्वारथी सोय। कथनी तजि करनी करै, तब मुक्ताहल होय॥