सूफी कवि बाबा बुल्ले शाह
बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
'मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ
आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?'
'जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ
जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ
सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ'
बुलेशाह कहते हैं...चढ़दे सूरज
ढलदे देखे. बुझदे दीवे
बलदे देखे. हीरे दा
कोइ मुल ना जाणे,
खोटे सिक्के चलदे देखे, जिना दान
जग ते कोई, ओ वी
पुतर पलदे देखे।
उसदी रहमत दे नाल बंदे पाणी उत्ते चलदे देखे।
लोको कैंदे दाल नइ गलदी, मैं ते
पथर गलदे देखें।
जिन्हा ने कदर ना कीती रब दी, हथ खाली
ओ मलदे देखें....
कई पैरा
तो नंगे फिर, सिर ते
लभ छावा, मैनु दाता
सब कुछ दित्ता, क्यों ना
शुकर मनावा..
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