रमा राम मोको कहाँ ढूढे रे बन्दे
कस्तूरियाँ मूंग कौ अंग
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढे वन माँहि।। ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनियाँ देखे नाँहि ॥
सो साँई तन में बसै, भ्रम्यौ न जाण तास। कस्तूरी के मृग ज्यूँ, फिर फिर सूधैं घास ॥
कबीर खोजी राम का, गया जु सिंघल द्वीप। राम तो घट भीतर रमि रहया, जो आवै परतीत ॥
घटि बँधि कहीं न देखिये, ब्रह्म रहया भरपूरि। | जिनि जान्याँ तिन निकट है, दूरि कहै थै दूरि ॥
मैं जाण्याँ हरि दूर है, हरि रह्या सर्कल भरपूरि। आप पिछाण बाहिरा, नेड़ा की थै दूरि ॥
जो तिल के माहि तेल जो चम् चम् में आग तेरा साई तुझ में हे जाग सके जाग ||
जैसे फूलो के अंदर सुगंध होती हे और मेहँदी के पत्तो में मेहँदी होती हे और जैसे दूध के अंदर घी समाया होता हे इसी प्रकार
परमात्मा हमारे अंदर समाय हुए हे उसको कहि ढूढ़ने की जरूरत नहीं वो सहज ही मिल जाते हे उस जीव को अंतर मुखी
होना होगा || खोय हम खुद हे खोज रहे हे परमात्मा को किसी विडम्बना हे जीव की जो मालिक मुर्शिद के पास होते
हुए भी उसको मंदिर मज़्जिद में ढूढ रहा हे |
न जाने तेरा साहब कैसा है? मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे क्या साहेब तेरा बहरा है। चिंवटी के पग नूपुर बाजे सो भी साहब सुनता है। पण्डित होय के आसन मारे लम्बी माला जपता है। अंतर तेरे कपट कतरनी सो भी साहब लखता है।
मोको कहां ढूँढे रे बन्दे
मैं तो तेरे पास में ना तीरथ मे ना मूरत में ना एकान्त निवास में ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं बरत उपास में ना मैं किरिया करम में रहता नहिं जोग सन्न्यास में नहिं प्राण में नहिं पिंड में ना ब्रह्याण्ड आकाश में ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में नहिं स्वांसों की स्वांस में खोजि होए तुरत मिल जाउं इक पल की तालास में कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में
सत साहिब जी ||
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